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गीता सार | कर्म क्या है?, अकर्म क्या है?, विकर्म क्या है?

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कर्म  क्या है?

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं विकर्मण: |
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति: || .१७ ||

कर्म की गूढ़ता को समझना अत्यंत कठिन है। अतः मनुष्य को चाहिए की वो यह ठीक से जाने कि कर्म क्या है, अकर्म क्या है और विकर्म क्या है। [.१७ गीता]

जब कोई भी क्रिया, जो सचेत या अचेत रहते हुए की जाती है, तो  वह कर्म कहलाता है। अर्थात जगत में कोई भी प्राणी चाहे-अनचाहे जो भी करता है वह कर्म ही करता है। उदाहरण के लिए पड़ना, लिखना , दौड़ना, सोचना, साँस लेना, सोना, जागना  और वो सभी कुछ जो हम सोच सकते है।  
कर्म - जिसका समाज पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। 
कर्म, मनुष्य कार्य क्षेत्र में उसके भीतर से प्रकृति के तीन गुणों द्वारा प्रेरित क्रिया है। कर्म इंद्रियों को नियंत्रित करने और मन को शुद्ध करने के लिए शास्त्रों द्वारा अनुशासित शुभ कर्म हैं। जिन क्रियाओं को निर्धारित कर्तव्यों के अनुसार किया जाता है, उसे कर्म कहते हैं। ये सभी कर्तव्य उसके धर्म से उत्पन्न होते है। 

मुख्यतः कर्म को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। 
1.    सकाम कर्म  (किसी फल की कामना से किया गया कर्म )
उदाहरण के लिए, दान देना। दान देना समाज पर अच्छा प्रभाव डालता है। परन्तु यह सोच कर दिया गया दान की कोई मुझे इसके लिए मेरी प्रशंसा करेगा तो ही मैं दान करूँगा। सकाम कर्म के द्वारा दिया गया दान है। इस दान सकाम कर्म कहा जाता है। क्योंकि यहाँ पर कर्ता प्रशंसा  की कामना रखता है।
               2. निष्कामकर्म (बिना किसी फल की कामना से किया गया कर्म )
वही पर किसी भी कामना के बिना और अपना धर्म समझ कर दिए गए दान को निष्काम कर्म कहा जाता है।  

            यहाँ हम देख सकते है कि दोनों ही कर्म समाज के लिए अच्छे है परन्तु इनमें अंतर स्वयं के उत्थान का है। और सकाम कर्म बंधन उत्पन्न करता है। क्योंकि यहाँ आप कर्म के फल से बंधे हुए हो और यह कई बार आपको कर्म करने में बाधित भी करेगा। 

इसी लिए निष्काम कर्म को सर्वोत्तम बताया गया है

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि || .४७  ||

कर्म करने के तुम अधिकारी हो, कर्म फल के नहीं। अतः मनुष्य का धर्म है कि वो बिना फल की कामना किये कर्म करे। क्योंकि यह कर्म करने के लिए आसक्त करता है। 
[.४७ गीता]

सकाम कर्म और निष्काम कर्म में सिर्फ यही अंतर है। दोनों ही एक ही प्रकार के कर्म है परन्तु अंतर केवल फल की कामना का है। 

अकर्म - जिसका समाज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। 
अकर्म (निष्क्रियता) कर्म है जो केवल ईश्वर की प्रसन्नता के लिए, जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त होने के लिए, अच्छे तथा बुरे के प्रभाव से अलग होने के लिए किये जाते है।  उनके पास तो कोई कर्म प्रतिक्रिया है और ही वे आत्मा को उलझाते हैं। यह प्राकृतिक रूप से सार्वभौमिक है। 

इसे "सेवर्मा, स्वधर्म, वर्ण-कर्म, स्वयंभूव-कर्म, नियतकर्मा भी कहा जाता है। सभी प्राणियों के कल्याण के लिए एक प्राकृतिक कर्तव्य (संस्कार) का निस्वार्थ प्रदर्शन है। अकर्म से मुक्ति मिलती है।

विरक्ति या संसार से स्वयं को अलग करने व् परम ईश्वर में स्वयं को मिला लेने की क्रिया को ही अकर्म कहते  है। उदाहरण के लिए सभी सांसारिक वास्तु, भाव एवं कर्मो से संन्यास और सिर्फ ईश्वर की भक्ति। 

विकर्म - जिसका समाज पर बुरा प्रभाव पड़ता है। 
निषिद्ध कर्म। विकर्म शास्त्रों द्वारा निषिद्ध अशुभ कर्म हैं क्योंकि वे हानिकारक हैं और परिणामस्वरूप समाज एवं स्वयं की आत्मा का ह्रास होता है। जो कार्य किसी की स्वतंत्रता के दुरुपयोग के माध्यम से किए जाते हैं और जो निचले जीवन रूपों को प्रत्यक्ष रूप से हानि करते हैं, उन्हें विकर्म कहा जाता है। 
उदाहरण के लिए चोरी।  

अतः ऊपर कही गई बातों से आप समझ पाएंगे कि आप जो भी कर्म कर रहे है वो क्या है और कौन सा कर्म है।


लेखक : विनीत कुमार सारस्वत

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